११ जून, १९५८

 

   ''जब निश्चयात्मक उन्मज्जन होता है तो उसका एक चिह्न है हमारे अंदर एक. ऐसी निहित, आंतरिक, स्वयंभू चेतनाकी स्थिति या क्यिा जो अपने-आपको अपने अस्तित्वके कारण ही जानती है, जो कुछ उसके अंदर है उसे भी उसी तरह तादात्म्यके द्वारा जानती है और जो कुछ हमारे मनको बाहरी लगता है उसे भी उसी ढंगसे, एक ऐसी तादात्म्यकी क्रियाद्वारा था आंतरिक साक्षात् चेतनाके द्वारा देख पाती है जो वस्तुओंको बाहरसे व्याप्त कर लेती है, उसे भेदती है, उसके अंदर प्रवेश करती है, उस वस्तुके अंदर अपने-आपको पाती है और उसमें किसी ऐसी चीजसे अवगत होती है जो मन, प्राण या शरीर नहीं है । तो यह स्पष्ट है कि एक आध्यात्मिक चेतना है जो मनसे भिन्न है और वह हमारे अंदर एक ऐसी आध्यात्मिक सत्ताकी उपस्थितिको प्रमाणित करती है जो हमारे ऊपरी मानसिक व्यक्तित्वसे भिन्न है ।',

 

('लाइफ डिवाइन', पृ ८५५)

 

      मधुर मां, क्या सबमें आध्यात्मिक सत्ता होती है?

 

यह निर्भर है कि हम ''सत्ता'' किसे कहते है । यदि हम ''पुरुष' के स्थानपर ''उपस्थिति'' कहें, तो, हो, सबके अंदर आध्यात्मिक उपस्थिति होती है । यदि ''पुरुष' से हमारा मतलब है एक संगठित, अपने बारेमें पूर्ण सचेतन, स्वतंत्र और निश्चयपूर्वक अपना अधिकार जमानेवाली शक्तिसे युक्त और बाकी सारी प्रकृतिको शासित करनेवाली सत्तासे -- तो नहीं! इस स्वतंत्र और सर्वशक्तिमान् सत्ताके होनेकी संभावना तो सबमें है, लेकिन इसकी उपलब्धि लंबे प्रयासका फल होती है ' जिसमें कभी-कभी तो अनेक जन्म लग जाते है ।

 

   यह आध्यात्मिक उपस्थिति, यह अंतरप्रकाश हर एकमें होता है, यहां- तक कि बिलकुल शुरूसे होता है... । असलमें, यह सब जगह है । मैंने इसे बहुत बार कुछ पशुओंमें देखा है । अमुक संयम और सुरक्षाकी नींवमें यह एक चमकते बिंदुकी तरह होती है, एक ऐसी चीज जो अर्ध-चेतन अवस्थामें भी बाकी सृष्टिके साथ सामंजस्य बनाये रखना संभव करा देती

 

३१३


है ताकि ऐसे विछवंस साधारण और स्थायी न बन जायं जिनका कोई इलाज न हो । इस उपस्थितिके बिना प्राणिक हिंसा और आवेशोंसे उपजी अव्यवस्था ऐसी होगी जो किसी भी क्षण व्यापक विछवंस ला सकती है, एक तरहका पूर्ण विध्वंस जो प्रकृतिकी प्रगतिको रोक देगा । यही वह उपस्थिति है, वह आध्यात्मिक ज्योति है -जिसे लगभग आध्यात्मिक चेतना कहा जा सकता है - जो प्रत्येक जीवमें है, प्रत्येक वस्तुमें है । इसीके कारण सब विषमताओं, आवेगों और उग्रताओंके होते हुए भी कम-से-कम कुछ व्यापक सामंजस्य तो रहता ही है जो प्रकृतिके कार्यको ससिद्ध होने देता है ।

 

    मनुष्यमें यह उपस्थिति काफी प्रत्यक्ष हो जाती है, यहांतक कि सर्वाधिक अविकसित मनुष्यमें भी । यहांतक कि अति दानवीय मानवमें भी, ऐसे मानवमें भी जिसे देखकर राक्षस या दानवके अवतारका ही आभास मिलता है, उसमें भी कुछ ऐसी चीज होती है जो दुर्दमनीय रूपसे नियंत्रण करती है - बुरे-से-बुरे मनुष्यके लिये भी कुछ चीजों असंभव होती है । और इस उपस्थितिके बिना, यदि जीवन अनन्य भावसे विरोधी शक्तियोंद्वारा, प्राण- की शक्तिद्वारा अधिकृत होता तो यह असंभवता न रहती ।

 

    हर बार, जब इन विरोधी या आसुरी शक्तियोंकी लहर धरापर फैलती है तो लगने लगता है कि अब इस अस्तव्यस्तता और संत्रासको फट पडूने- से कोई न रोक सकेगा, और सदा हीं, एक निश्चित घडीमें, बिलकुल आशा- तीत और अव्यास्येय रूपमें एक नियन्त्रण हस्तक्षेप करता है और वह लहर थाम ली जाती है, और पूर्ण विध्वंस नहीं हो पाता । और यह होता है जड़-पदार्थमें उसी 'उपस्थिति'के कारण - परम प्रभुकी उपस्थितिके कारण ।

 

    पर बहुत ही विरले लोगोंमें और लंबी, बहुत लंबी, जन्म-जन्मांतरोंकी लंबी तैयारीके बाद ही यह' 'उपस्थिति' एक सचेतन, स्वतंत्र, सुसंगठित सत्तामें बदलती है, जिस घरमें रहती है उसकी सर्व-समर्थ स्वामिनी बनती है, इतने पर्याप्त रूपमें सचेतन और सशक्त होती है कि न केवल इस घर- को, बल्कि इसके परिवेशको सदा अधिकाधिक विस्तृत और सदा अधिक प्रभावशाली हाते हुए क्रिया और विकिरणके क्षेत्रको भी नियंत्रित कर सकती है !

 

 

३१४